Thursday 19 November 2009

सूचना का अधिकार ओर संशोधन


सूचना के अधिकार 2005 में संशोधन

आम तौर पर किसी भी कानून में संशोधन करने का तात्पर्य होता है, देश के व्यापक हित में कानून में सुधार। लेकिन सूचना के अधिकार कानून 2005 के संशोधन में देश का व्यापक हित स्पष्ट नहीं हो रहा है। स्पष्ट न होने की भी ख़ास वजह है, कि क्या ये वास्तव में कानून का संशोधन है या फिर सरकारी दफ्तर और नौकरशाही ने ये तय कर लिया है कि हम नहीं सुधरेंगे। इसलिये कानून ही ऐसा बना दिया जाये कि हमारे सुधरने की कोई गुंजाइश ही न बचे। देखा जाय तो सरकारी महकमों के अलावा किसी की भी ये राय नही है कि सूचना के अधिकार में किसी तरह के संशोधन की जरूरत है।
सरकार इस संशोधन के द्वारा सूचना के अधिकार से फाइल नोटिंग दिखाने का अधिकार वापस लेने और अनावश्यक सवालों को ख़ारिज करने की बात कर रही है। अगर हम अनावश्यक सवालों की बात करें तो एक उदाहरण से सरकार की मंशा समझ सकते हैं। 14 नवम्बर को जंतर-मंतर के पास आर. टी. आई. में संशोधन रोकने के लिये धरना दिया गया। धरने में अरूणा राय भी शामिल थी। तमाम जद्दोजहद के बाद कार्मिक एंव प्रशिक्षण मंत्रालय(डी.ओ.पी.टी.) में उनकी मीटिगं तय हुयी। वहाँ से लौटने के बाद अरूणा जी ने धरने में बैठे लोगो को मीटिंग में हुयी अपनी बात-चीत का ब्योरा दिया। जहाँ उन्हे ही अनावश्यक सवाल का उदाहरण दे कर संशोधन की अवश्यकता समझाने की कोशिश की गयी।
दरअसल किसी व्यक्ती ने सूचना मांगी कि मैट्रो के निर्माण में कितने पेड़ काटे गये और उनके स्थान पर कितने पेड़ लगाये गये। ये सवाल सरकार के लिए अनावश्यक और परेशान करने वाला है। आज जब पर्यावरण वैश्विक स्तर पर एक बहुत बड़ा मुद्दा बन गया है और फिर हमारी दिल्ली सरकार ने इसी साल सितंबर माह में दिल्ली के पेड़ो की गिनती करवायी थी तो अब सवाल ये उठता है कि सरकार पेड़ो से संबंधित ये सूचना देने से क्यो कतरा रही है, अगर सरकार के पास रिकार्ड है तो उन्हे कतराना नही चाहिये।
जहाँ तक फाइल नोटिंग दिखाने की बात है, तो इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि इससे अधिकारियों को इमानदारी से काम करने में मुश्किल होगी क्योकि इससे वो बेइमानो और स्वार्थियों के नज़र में चढ़ जायेंगे। लेकिन प्रशन ये उठता है कि आज से चार साल पहले क्या सरकारी दफ्तरों और नौकरशाही में इमानदारी थी? क्या वहां कोई भ्रष्टाचार व्याप्त नहीं था? क्योकि इस कानून के आने से पहले न तो फाइल नोटिंग दिखाने की समस्या थी और नही बेइमानो के नज़र में चढ़ने की समस्या थी। ज़ाहिर है, हालात इससे बेहतर नही थे।
दरअसल आज़ादी के साठ सालों बाद भी हम ये नहीं मान पाये है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था आम आदमी में नीहित होती है। लेकिन इस समस्या का समाधान इसी धरने में राजस्थान से आये एक व्यक्ती ने बखूबी सुझाया। उन्होने कहा कि हम सरकार से जाकर बोलेंगे कि यदि आप को सूचना देने में तकलीफ हो रही है तो आप अपनी कुर्सी छोड़ दो। हममें से ही कोई ऐसा व्यक्ति कुर्सी संभाल लेगा जिसे सूचना देने में तकलीफ नही है। अब सरकार के सामने हमें अपना पक्ष मजबूती से रखना होगा कि हमें संशोधन नहीं सूचना चाहिये, गोपनीयता नहीं पारदर्शिता चाहिये।

1 comment:

  1. prawahmay lekhan shaili ke dwara aapne beshak apne manobhawon ko behtar swar diya hai .man men upje kawitaon ko bhi bedharak blog par diliye.

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