Friday 3 September 2010

जिन्दगी पाना आसान लेकिन जिन्दा रहना मुश्किल


जिन्दगी पाना आसान है लेकिन जिन्दा रहना मुश्किल। आज युनियन कर्बाइट गई थी वही फैक्ट्री जिसने भोपाल के इतिहास पर ऐसा दंश दिया कि उससे छुटकारा पाना मुश्किल है। ५२ सालों बाद भी यहां की पीड़ियां इसे ढ़ो रही हैं। भोपाल गैस त्रासदी का प्रतीक वो मूर्ती भी देखी जिसमें एक मां अपने दुधमुहे बच्चे को बचा रही है। लेकिन उसमें भी गर्द सी जमी हुई है। सारी स्मिृतियां कमजोर सी पड़ गई हैं।ठीक वैसे ही जैसे सरकारी आंकड़ें कमजोर पड़ जाते हैं, समय साथ एहसास कमजोर पड़ जाते हैं, आंखे खुसने के साथ एहसास कमजोर पड़ जाते हैं।११ जुलाई २०१० को पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भोपाल के यूका के आस-पास के जहरीले कुओं को पाटने की घोषणा की है। पूरे २५ सालों बाद सरकार को इसे पाटने का ख्याल आया। लेकिन वहां पानी की क्या व्यवस्था है लोग वहां कैसा पानी पी रहे हैं इसकी सुध किसी को नहीं ली। सड़क के दोनो किनारे पर बस्तियां बसी हुई है। इन बस्तियों में भी अमीरी और गरीबी का स्पष्ट अन्तर देखा जा सकता है। एक ओर छोटी-छोटी झुग्गियां बसी हुई थी और दूसरी ओर झुग्गीयों की तुलना में कुछ पक्के मकान। मजेदार बात ये है कि इन पक्के मकानों की ओर ही सरकारी पाईप लाईन से पानी की सप्लाई होती है, ईसमे एक दिन छोड़ कर पानी आता है और आते-आते ये पानी लाल रंग का हो जाता है। जिन पक्के मकान वालों की तरफ पाईप है वो झुग्गियों में रहने वालों को पानी नहीं भरने देते हैं। वहीं इन झुग्गीयों की ओर हजार-हजार लीटर की तीन टंकियां रखी हुई हैं जिसमें टैंकर पानी भरने आता है ये टैंकर भी कभी पानी भरता कभी नहीं भरता। एक टंकी से पचास परिवार का काम चलता है और एक परिवार में दस से चौदह सदस्य हैं, कुल मिलाकर इनके हाथ आती हैं पानी की कुछ बूंदे। पास में ही एक सप्लाई का नल है जो पुलिस वालों के कब्जे में है वहां से भी इन लोगों को पानी नहीं मिल पाता है। अब इनके पास जो आखिरी विकल्प बचता है वो है गैस प्रभावित कुएं का पानी। इन्हें ये तो मालूम है कि अगर पानी उबाल कर पिया जाए तो पानी साफ हो जाता है लेकिन विड़बना ये है कि इनके पास इतना पैसा नहीं है कि रू २३ किग्रा बिकने वाली लकड़ी को पानी की सफाई में बर्बाद कर दिया जाए।इसी गंदे पानी की वजह से इन लोगों में पेट में दर्द, जोड़ो में दर्द, शारीरिक विकलांगता और तो और टीबी की भी बिमारी है। वहां रहने वाली शकीला बी के परिवार में १४ सदस्य हैं, और १३ लोगों को टीबी है। ६९ साल की शकीला और उनके पति से लेकर उनकी ३ साल की नवासी तक को टीबी है। लेकिन इन सबकी फिक्र किसी को नहीं न ही जयराम रमेश को और न ही उन पार्षदों और विधायकों को जो चुनाव के समय इन्ही बस्ती वालों को जबर्दस्ती पकड़ कर अपने नाम के नारे लगवाते हैं।

Thursday 18 February 2010

चाक पर सजती आज़मगढ़ की मिट्टी
पिछले कुछ दिनों से आजमगढ़ आतकंवादी गतिविधियों, बटला हाउस, दिग्विजय सिंह, राहुल गांधी की वजह से ही जाना जा रहा है। खौफ में धंसी इस मिट्टी में भी हरकतें होती हैं, शायद ये बहुत कम लोगों को मालूम है। इस साल फरीदाबाद में आयोजित सूरजकुण्ड मेंले ने इसी हरकतों को जानने का मैका दिया। मेले में कुछ सौ कदम चलने के बाद एक पेड़ के नीचे एक तस्वीर रखी थी। जिसमें एक महिला पूर्व राष्ट्रपति डा. वेकट रमन से पुरस्कार लेते हुये नज़र आ रही थी। बगल में वही महिला सफेद रंग की सूती साड़ी पहने हुये छोटे-छोटे मिट्टी के बर्तनों के साथ बैठी थी। उम्र करीब पैसठ या सत्तर साल, लेकिन आँखो और बर्तनों की चमक में कोई खास अंतर नहीं था।
ये आज़मगढ़ डिस्टिक के निजामाबाद इलके की रहने वाली कल्पना देवी है। कल्पना देवी के घर में मिट्टी के बर्तन बनाने का काम होता है। ये उनका खानदानी पेशा है। कल्पना देवी खुद अपने बारे में बताती हैं कि बचपन में ही उनकी शादी हो गई थी और उनका गवना होने के बाद से ही वो इस काम में अपने पति के हाथ बांटने लगीं। पति की मृत्यु के बाद उन्होने इस काम की कमान अपने हाथों में ले ली। इनकी सास ने भी इनका भरपूर साथ दिया। अपनी इसी कला के लिए कल्पना देवी को सन् 1987 में पूर्व राष्ट्रपति डा. वेकटरमन से सम्मान भी मिला। अपने काम के बारे में कल्पना बताती हैं कि सबसे पहले मिट्टी को चाक पर आकार दिया जाता है फिर गुड़ और बकरी का मल डाल कर बर्तनों को लाल, काला और भूरा रंग दिया जाता है। अलग-अलग रंग देते समय इस बात का खास ध्यान रखा जाता है कि किस रंग के लिए बर्तन को किस ताप पर पकाना है।
आज इनके तीन बेटे और उनकी बहुयें इस काम में इनकी मदद कर रहें है। कल्पना देवी के तीनो बेटे भी इन खूबसूरत बर्तनों के लिए उत्तर प्ररदेश सरकार से सम्मान पा चुके है। इतना ही नहीं इनकी एक बहुं का चयन भी उत्तर प्रदेश सरकार के सम्मान के लिए किया जा चुका है। जब उनके इस परिवारिक पेशे में उनके ही परिवार के भागीदारी की बात आती है तो वो ये बताने में संकोच नहीं करती कि ज्यादातर काम घर की औरतें ही करतीं हैं। घर के पुरूष तो आमतौर पर माल बेचने के लिए ही जातें हैं। मिट्टी को सनना, उसे चाक पर आकार देना, पकाना, तेल से मांजना और रंगने का काम औरते ही करती हैं।
बढ़ते महंगाई की मार से ये भी परेशान हैं कलपना देवी का कहना है कि रांगा और पारा जहाँ पहले पाच सौ रूपये किग्रा बिकता था वही अब इसकी कीमत दो हजार किग्रा हो गयी है। ग्रहाक ना मिलने की वजह से इस साल करीब दो हजार का माल बर्बाद हो गया। इन्हीं सब वजहों से हम छोटे और कम नक्काशी वाले बर्तन ही बेचतें हैं। बड़े और ज्यादा नक्कशी वाले समानों में मेहनत और लागत दोनो ही लगती है इसलिए हम उन्हे केवल आर्डर पर ही बनातें हैं। वो आगे बताती है कि हमारी कमाई बहुत अच्छी नहीं है। लोग हमारी मेहनत नहीं देखते उन्हे तो ये सिर्फ मिट्टी के बर्तन ही समझ में आतें हैं। लोग बीस रूपये का सामान दस रूपये में ही लेना चाहते हैं। इतने सारे पुरस्कारों से सम्मानित होने के बावजूद ये परिवार लोगों की ही नहीं बल्की सरकार की भी उदासीनता झेल रहा है। पहले इन्हे किसी भी नुमाइश में जाने के लिए सरकार की तरफ से टीए, डीए, माल भाड़ा और आने जाने का किराया दिया जाता था। लेकिन अब इन्हे सिर्फ बेचने के लिए दुकान और सोने के लिए जगह भर दे दी जाती है।
इन सबके बावजूद मिट्टी के साथ इनका गांठ नहीं छूट सका। कल्पन देवी मानती है कि उन्हे अब सारी उम्र इसी मिट्टी का दिया खाना है, उनके परिवार को अपने इस काम से बेहद लगाव है। सच तो ये है कि हमारे देश में मिट्टी से जुड़े हर इंसान के लिए हर कदम पर समस्यायें हैं और कल्पना देवी इसका जीता जागता उदाहरण हैं। इतनी सारी उपेक्षाओं से जूझते हुये आज़मगढ़ की मिट्टी आज भी अपने लिये संभावनाओं की तलाश में जुटी हुई है। इस मिट्टी के इस जज्बे को सलाम।