जिन्दगी पाना आसान है लेकिन जिन्दा रहना मुश्किल। आज युनियन कर्बाइट गई थी वही फैक्ट्री जिसने भोपाल के इतिहास पर ऐसा दंश दिया कि उससे छुटकारा पाना मुश्किल है। ५२ सालों बाद भी यहां की पीड़ियां इसे ढ़ो रही हैं। भोपाल गैस त्रासदी का प्रतीक वो मूर्ती भी देखी जिसमें एक मां अपने दुधमुहे बच्चे को बचा रही है। लेकिन उसमें भी गर्द सी जमी हुई है। सारी स्मिृतियां कमजोर सी पड़ गई हैं।ठीक वैसे ही जैसे सरकारी आंकड़ें कमजोर पड़ जाते हैं, समय साथ एहसास कमजोर पड़ जाते हैं, आंखे खुसने के साथ एहसास कमजोर पड़ जाते हैं।११ जुलाई २०१० को पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भोपाल के यूका के आस-पास के जहरीले कुओं को पाटने की घोषणा की है। पूरे २५ सालों बाद सरकार को इसे पाटने का ख्याल आया। लेकिन वहां पानी की क्या व्यवस्था है लोग वहां कैसा पानी पी रहे हैं इसकी सुध किसी को नहीं ली। सड़क के दोनो किनारे पर बस्तियां बसी हुई है। इन बस्तियों में भी अमीरी और गरीबी का स्पष्ट अन्तर देखा जा सकता है। एक ओर छोटी-छोटी झुग्गियां बसी हुई थी और दूसरी ओर झुग्गीयों की तुलना में कुछ पक्के मकान। मजेदार बात ये है कि इन पक्के मकानों की ओर ही सरकारी पाईप लाईन से पानी की सप्लाई होती है, ईसमे एक दिन छोड़ कर पानी आता है और आते-आते ये पानी लाल रंग का हो जाता है। जिन पक्के मकान वालों की तरफ पाईप है वो झुग्गियों में रहने वालों को पानी नहीं भरने देते हैं। वहीं इन झुग्गीयों की ओर हजार-हजार लीटर की तीन टंकियां रखी हुई हैं जिसमें टैंकर पानी भरने आता है ये टैंकर भी कभी पानी भरता कभी नहीं भरता। एक टंकी से पचास परिवार का काम चलता है और एक परिवार में दस से चौदह सदस्य हैं, कुल मिलाकर इनके हाथ आती हैं पानी की कुछ बूंदे। पास में ही एक सप्लाई का नल है जो पुलिस वालों के कब्जे में है वहां से भी इन लोगों को पानी नहीं मिल पाता है। अब इनके पास जो आखिरी विकल्प बचता है वो है गैस प्रभावित कुएं का पानी। इन्हें ये तो मालूम है कि अगर पानी उबाल कर पिया जाए तो पानी साफ हो जाता है लेकिन विड़बना ये है कि इनके पास इतना पैसा नहीं है कि रू २३ किग्रा बिकने वाली लकड़ी को पानी की सफाई में बर्बाद कर दिया जाए।इसी गंदे पानी की वजह से इन लोगों में पेट में दर्द, जोड़ो में दर्द, शारीरिक विकलांगता और तो और टीबी की भी बिमारी है। वहां रहने वाली शकीला बी के परिवार में १४ सदस्य हैं, और १३ लोगों को टीबी है। ६९ साल की शकीला और उनके पति से लेकर उनकी ३ साल की नवासी तक को टीबी है। लेकिन इन सबकी फिक्र किसी को नहीं न ही जयराम रमेश को और न ही उन पार्षदों और विधायकों को जो चुनाव के समय इन्ही बस्ती वालों को जबर्दस्ती पकड़ कर अपने नाम के नारे लगवाते हैं।
Friday 3 September 2010
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